स्वामी विवेकानन्द जी का जीवन
परमात्मा की कृपा पर मेरा अखण्ड विश्वास है। वह कभी टूटने वाला भी नहीं। धर्मग्रन्थो पर मेरी अटूट श्रध्दा है। परन्तु प्रभु की इच्छा से मेरे गत छः सात वर्ष निरन्तर विभिन्न बिघ्न-बाधाओं से लडते हुए बीते। मुझे आदर्श शास्त्र प्रात्त हुआ है; मैंने एक आदर्श महापुरुष के दर्शन किये हैं, फिर भी किसी वस्तु का अन्त तक निर्वाह मुझसे नहीं हो पाता, यही मेरे लिए बडे कष्ट की बात है। … कलकत्ते में मेरी माँ और दो भाई रहते हैं। मैं सबसे बडा हूँ। दूसरा भाई एफ. ए. परीक्षा की तैयारी कर रहा है और तीसरा अभी छोटा है। वे लोग पहले काफ़ी सम्पन्न थे, पर मेरे पिता की मृत्यु के बाद उनका जीवन कष्टमय हो गया है। कभी-कभी तो उन्हे भूखा रहना पडता है। सबसे बडी बात तो यह है कि उन्हे असहाय पाकर कुछ समन्धियों ने उन्हे पैतृक घर से भी निकाल दिया है। कुछ भाग तो हाईकोर्ट में मुक़दमा लडकर पुनः प्राप्त कर लिया गया है, परन्तु वे मुक़दमेबाज़ी के कारण धनहीन हो गये हैं। कलकत्ते के पास रहकर मुझे अपनी आँखो उनकी दुरवस्था देखनी पडती हैं। उस समय मेरे मन में रजगुण जाग्रत हो उठता है और मेरा अंहभाव कभी - कभी उस भावना में परिणत हो जाता है, जिसके कारण कार्यक्षेत्र में कुद पडने की प्रेरणा होती है। ऐसे क्षणों में मैं अपने मन में एक भयंकर अन्तर्द्वन्द्व अनुभव करता हूँ। …अब उनका मुक़दमा समाप्त हो चुका है। आशीर्वाद दीजिए कि कुछ दिन कलकत्ते में ठहर कर उन सब मामलों को सुलझाने के बाद मैं इस स्थान (कलकत्ता) से सदा के लिए विदा ले सकुँ।
( वि.स. १/३३७, ४ जुलाई, १८८९ )
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